Wednesday 8 March 2017

" चुप्पी "

" चुप्पी "

तुम्हारी औकात !
तुम्हें पता है ।
तूम नहीं खरीद सकते महंगी किताबें
नहीं रह सकते शहर के प्राइवेट लॉजों में
नहीं खा सकते बाहर का महंगा खाना
कुछ सुविधाएँ मिलना तुम्हारा अधिकार है
जिसे तुम्हारी औकात देख कर
राज्य ने तय कर रखा है
जो तुम्हें नहीं मिल रहा है

तूम झूठी शान दिखाने में व्यस्त हो
पर तुम्हारे पिता बेचते हैं अपनी जमीन
तूम खरीदते हो महँगी किताबें
रहते हो शहर के प्राइवेट लॉज में
खाते हो बाहर का महँगा खाना
ये तुम्हारी विवश्ता है ।
फिर भी !
तूम चुप थे,
और आज भी चुप हो !

मैं पूछता हूँ !
कब टूटेगी तुम्हारी चुप्पी' ?
कब तक बघारते रहोगे झूठी शान ?
कब कलकलायेगा तुम्हारा कलेजा ?
कब करोगे तुम प्रतिकार ?
जिसके आर में
काला हो गया तुम्हारा अतीत
और हो सकता है काला
भविष्य !

© रजनिश प्रियदर्शी
     24/01/2017

"अकथ्य प्रेम"

"अकथ्य प्रेम"

मैं क्या खोया और क्या पाया 
चिंतन इसपर जब करता हूँ ।
अपने भूतों पर सोच - सोच
अपने भविष्य से डरता हूँ ।।

मेरा मन निश्छल चंचल था 
न् छल प्रपंच का ज्ञान मुझे ।
कुछ तथाकथित लोगों का 
मेरे जीवन पर डोरा था ।
क्या करना तुझको आगे है
ये मेरे ऊपर छोड़ा था ।।

वो बिच - बिच में दखल दिए 
और द्वन्द सैकड़ो खड़े किये ।
में दिन भर उलझा रहता था 
पल - पल आहें भरता था ।।

अपने अहसासों को जुबान पर 
लाने से मैं डरता हूँ .......।
उस निर्मोही को आंखो की
भाषा प्रेषित में करता हूँ ।।

बोलो कैसे समझाऊं उसे 
की प्रेम अकथ्य होता है ।
निज अंतरमन के भावों से 
ह्रदय में पुष्पित होता है ।।

© रजनिश प्रियदर्शी
      06/10/2016

"आज के डॉ साहब"

"आज के डॉ साहब"

गरीब जनता का पेट काट
अपनी चर्बी बढ़ा रहे ...
भगवान् कहे जाने वाले 
मुर्दों से भी कमा रहे ...

अपनी शान बढ़ाने में 
लोगों की आन मिटा डाला 
उस भगवान् को क्या पूजूँ 
कर्म हुआ , जिसका काला ..

आओ सब मिल कदम बढ़ाएं 
संगठित हो इनको समझाएं 
हम सब से तुम् हो ...न् की 
तुमसे हम सब का जीवन है

ऐसे वैद हुआ करते 
सेवा को कर्म समझते ज़ो
धन दौलत रुपया पैसा से 
जीवन न् तौला करते वो ..

© रजनिश प्रियदर्शी
     20/10/2016

"इंसान"

"इंसान"

तुम् कूपमंडूक हो  !
तुम्हारे सोच संकीर्ण हैं  !
तुम्हारे विचार असहिष्णु हैं  !
तुम्हारे व्यवहार कुटिल हैं  !
तुम्हारे संस्कार नीच हैं  !

में फिर भी तुम्हारे बिच हूँ  !
क्योंकि मुझे विश्वास है ....

तुम् ...........!

सोचोगे .... अपनी संस्कृति पर  !
समझोगे .....अपने इतिहास को  !
ढलोगे ...... अपनी सभ्यता में  !
बनोगे ......स्नेही, शीलवान, धैर्यवान  !

लोग तुम्हें त्यागना चाहते है  !
मैं फिर से कहता हूँ ....
बार-बार कहता हूँ .....!!
मैं तुम्हारे अंदर हूँ  !

सहमा हुआ ! दुबका हुआ  !
इंसान  !

© रजनिश प्रियदर्शी
      19/10/2016

"दहेज़"

"दहेज़"

सोने के सिंघासन पर बैठे हुए
स्वर्ण मुकुटधारी भगवान से
उसने कुछ नहीं माँगा था !
वह बचाना चाहता था ..
एक ज़िन्दगी !
दहेज पिपासुओं से
इसी कोशिस में !
उस भगवान से माँगा उसकी मुकुट...
वो न हाँ' बोला न ना' बोला....
अक्सर चुप्पी को सहमति मान ली जाती है साहब !
मुकुट पाकर बहूत खुश था वो
भगवान ने उसकी मदद जो की थी

भगवान के सर से मुकुट गायब !
सनसनी खेज ख़बर
शहर में आग की तरह फैली
भगवान के आलावे किसी और ने भी देखा था उसे
क्रोधित भक्तों ने कर दिया खून...
उस मज़बूर बाप का....
बिना सच्च जाने...
हक़ीक़त भगवान को पता था ।
भगवानों की दुनियाँ में ....
ऐसा अक़्सर होता रहता है साहब !

कुछ दिनों के बाद
पहली बार उसकेे दहलीज़ के पार आइ थी
वो नहीं ....उसकी जली हुई लाश !
अख़बार वालों ने लिखा था
वो उसी मुकुट चोर की बेटी थी !
मैं एक जज हूँ !
मैं कहता हूँ....
हर बात के तह में होती है एक बात
हत्यारा कोई नहीं वो भगवान है
जो अब तक चुप है...!!

© रजनिश प्रियदर्शी
     10/02/2017

"उसे मैं प्रेम करता हूँ"

"उसे मैं प्रेम करता हूँ"

जब भी देखूँ उसका चेहरा 
ह्रदय से मैं मचलता हूँ .....!

उसके कल्पना के खिस्से 
प्रतिदिन में गढ़ता हूँ ........!

उसके सौंदर्य का चर्चा 
हजारों बार की मैंने .........!

उसका उत्श्रृंखल होना
मुझे मुस्कान देता है ........!

उसके मृगनयनी आँखे 
मुझे दर्पण दिखती है .......!

उसकी लहराती जुल्फ़े 
नया अहसास देता है .......!

उसकी छोटी सी मुस्कान 
हमारे चित को हर लेती ....!

कोई जा के बता उसको 
उसे मन-मंदिर में रखता हूँ !

कोई जाकर तो ये कह दो 
उसे मैं प्रेम करता हूँ .....।२।

© रजनिश प्रियदर्शी
     22/10/2016

"नदी की व्यथा"

"नदी की व्यथा"

आज  उससे  फ़िर  हुई  है   गुफ़्तगू
उसके ही तट पर, किनारे  बैठ  कर ।

कह रही थी, आज तुम फिर आ गए
मैं चुप रहा ! बस आँख डबडबा गए ।

पेट  पतला  हो  गया  था  सुख  कर
रंग  काला... गंध  भी  विचित्र  था ।

कलकलाती वो न् अब अविरल रही
बिनु  प्रबल - प्रवाह  बस स्तब्ध थी ।

देख यह स्वरूप मैं... नदी  से  कहने  लगा
न् रहेगी'  तू तो बता...कैसे बचेगी सभ्यता ।

इतने में नेपथ्य'  से' आवाज  आई  कान  तक  !
खुद ही खुद के कृत्य से मिटा रहे हो अस्मिता ।।

©  रजनिश प्रियदर्शी
      12/01/2017

"नव वर्ष"

"नव वर्ष"

नव्'  वर्ष   का  आगमन
हुआ   शरद  के  संग...
स्वागत्'   में   था   खड़ा
ठंढ'   अति     प्रचंड .. ।

नव'  वर्ष...   मनाने  का
मन  में  था   ऐसा  उमंग 
हमसब  सोचें नए वर्ष में
बदलें  अपना   ढंग ....।

करें  व्यवस्थित खुद को
स्फुरित रहे अंग-प्रत्यंग ।

करें  नियामित'  खुद   को
लक्ष्य रहे हर पल् ज्वलंत ।

हो   चिंतन'   स्पष्ट    सदा
चलें  सतत्  निष्ठा'  के  संग ।

ऐसा   ही   सोचा   है..   हमने
नव् वर्ष मनाने का यह ढंग ।।

© रजनिश प्रियदर्शी
     20/12/2016

"युद्धउन्माद"

"युद्धउन्माद"

जहाँ से शुरू होते हैं
हमारे तुम्हारे दलहिज
हम-तुम वहाँ करेंगे तांडव
मारे जाएंगे हजारों जवान
लाखों दिए जलेंगे शहीदों के नाम !

राष्ट्र प्रतिरोध की ज्वाला से भभक रहा है
जिसके जड़ में है एक विष वृक्ष
फैला रहा है राजनीतिक दंश
चंद चापलूसों का अनोपचारिक विचार है
युद्धउन्माद' ही लाएगी राजनितिक' स्थिरता !

मैं पूछता हूँ !
क्यों नहीं ? उखाड़ते हो यह विष-वृक्ष
जो बनता जा रहा है वट-वृक्ष
फैला रहा है राजनीतिक दंश
और एक दिन हम-तुम बनोगे 
प्रलयंकारी
युद्ध ! का अंश !

© रजनिश प्रियदर्शी
    09/01/2017