Wednesday 8 March 2017

"नदी की व्यथा"

"नदी की व्यथा"

आज  उससे  फ़िर  हुई  है   गुफ़्तगू
उसके ही तट पर, किनारे  बैठ  कर ।

कह रही थी, आज तुम फिर आ गए
मैं चुप रहा ! बस आँख डबडबा गए ।

पेट  पतला  हो  गया  था  सुख  कर
रंग  काला... गंध  भी  विचित्र  था ।

कलकलाती वो न् अब अविरल रही
बिनु  प्रबल - प्रवाह  बस स्तब्ध थी ।

देख यह स्वरूप मैं... नदी  से  कहने  लगा
न् रहेगी'  तू तो बता...कैसे बचेगी सभ्यता ।

इतने में नेपथ्य'  से' आवाज  आई  कान  तक  !
खुद ही खुद के कृत्य से मिटा रहे हो अस्मिता ।।

©  रजनिश प्रियदर्शी
      12/01/2017

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