"नदी की व्यथा"
आज उससे फ़िर हुई है गुफ़्तगू
उसके ही तट पर, किनारे बैठ कर ।
कह रही थी, आज तुम फिर आ गए
मैं चुप रहा ! बस आँख डबडबा गए ।
पेट पतला हो गया था सुख कर
रंग काला... गंध भी विचित्र था ।
कलकलाती वो न् अब अविरल रही
बिनु प्रबल - प्रवाह बस स्तब्ध थी ।
देख यह स्वरूप मैं... नदी से कहने लगा
न् रहेगी' तू तो बता...कैसे बचेगी सभ्यता ।
इतने में नेपथ्य' से' आवाज आई कान तक !
खुद ही खुद के कृत्य से मिटा रहे हो अस्मिता ।।
© रजनिश प्रियदर्शी
12/01/2017
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