Wednesday 8 March 2017

"अकथ्य प्रेम"

"अकथ्य प्रेम"

मैं क्या खोया और क्या पाया 
चिंतन इसपर जब करता हूँ ।
अपने भूतों पर सोच - सोच
अपने भविष्य से डरता हूँ ।।

मेरा मन निश्छल चंचल था 
न् छल प्रपंच का ज्ञान मुझे ।
कुछ तथाकथित लोगों का 
मेरे जीवन पर डोरा था ।
क्या करना तुझको आगे है
ये मेरे ऊपर छोड़ा था ।।

वो बिच - बिच में दखल दिए 
और द्वन्द सैकड़ो खड़े किये ।
में दिन भर उलझा रहता था 
पल - पल आहें भरता था ।।

अपने अहसासों को जुबान पर 
लाने से मैं डरता हूँ .......।
उस निर्मोही को आंखो की
भाषा प्रेषित में करता हूँ ।।

बोलो कैसे समझाऊं उसे 
की प्रेम अकथ्य होता है ।
निज अंतरमन के भावों से 
ह्रदय में पुष्पित होता है ।।

© रजनिश प्रियदर्शी
      06/10/2016

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